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80 साल का सूरमा, जिससे कांपती थी इस्टइंडिया कंपनी

80 साल का सूरमा, जिससे कांपती थी इस्टइंडिया कंपनी

इंस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ भड़की विद्रोह की चिंगारी को स्वतंत्रता संग्राम में बदलने वालों नायकों में एक नाम बाबू कुंवर सिंह का भी था।  80 साल के इस क्रांतिकारी नाम और पराक्रम से अंग्रेजी हुकूमत के पसीने छूटने लगते थे।  

मालवा के राजा भोज के वंशजों से ताल्लुक रखने वाले बिहार के जगदीशपुर रियासत के 80 वर्षीय राजा कुंवर सिंह जिन्हें लोग आदर से बाबू कुंवर के कहते थे, ने बर्तानवी हुकूमत के साथ कई जंग लड़े थे।  कुंवर सिंह के बारे में कहा जाता है कि उत्तर प्रदेश के बलिया से गांगा पार करते समय अंग्रेजी सैनिकों ने उनपर अंधाधुंध गोलिया चलानी शुरू कर दी।  इस बीच एक गोली बाबू कुंवर की बाजू में लग गई।  इस दौरान 80 साल के इस महानायक ने तुरंत अपनी म्यान से तलवारी निकाली और गोली लगे बाजू को काट कर गंगा फेंक दिया। 

 अंग्रेजों के सामने घुटने टकना नहीं था मंजूर

स्वतंत्रता संग्राम के हीरो जगदीशपुर के बाबू कुंवर सिंह को अपनी मातृ भूमि से इतना प्रेम था कि उन्हें अंग्रेजी हुकूमत के सामने घुटने टेकना मंजूर नहीं थी।  उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि वह 80 साल की उम्र में भी अंग्रेजों से लड़ने और जीतने का मद्दा रखते थे।  इसी हिम्मत और बहादुरी के चलते उन्होंने अंग्रेजों के सामने कभी घुटने नहीं टेके। 

भोजपुर जिले में हुआ था जन्म

बाबू कुंवर सिंह का जन्म 1777 में बिहार राज्य के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में हुआ था।  बाबू कुंवर सिंह तीन भाई थे। कहा जाता है कि कुंवर एक बड़ी रियासत के मालिक थे और लोगों के बीच अति लोकप्रिय थे। और उनकी अंग्रेजी सरकार में गहरी पैठ थी। अंग्रज अधिकारियों से भी उनकी अच्छी मित्रता थी, लेकिन उन्होंने मातृ भूमि के लिए कभी अंग्रेजों से समझौता नहीं किया। 

27 अप्रैल 1857 को आरा शहर पर लहरा रहा था कुंवर सिंह का परचम

1857 में मंगल पांडे के विद्रोह ने अंग्रेजों के खिलाफ लोगों के अंदर सुलग रही चिंगारी को हवा दी।  मंगल पांडे की बगावत के साथ ही पूरा देश अंग्रेजों खिलाफ हो गया। इस संग्राम में कुंवर सिंह की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण थी।  फिरंगियों को  भारत से भगाने के लिए हिंदू और मुसलमान दोनों एक साथ उठ खड़े हुए। ऐसे हालात में बाबू कुंवर सिंह ने भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया।  

बाबू कुंवर सिंह ने आरा नगर पर इस्टइंडिया कंपनी का झंडा उतार कर  27 अप्रैल, 1857 को दानापुर में अपना झंडा फहरा दिया।  अंग्रेजों के खिलाफ इस जंग में भारतीय सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और अन्य साथियों के साथ मिलकर जंग लड़ा। बाबू कुंवर सिंह ने आरा में जेल तोड कर कैदियों को मुक्त करवाने साथ ही अंग्रेजी खजाने पर कब्जा कर लिया। 

दो अगस्त को बीबी गंज में खोला मोर्चा 

कहा जाता है कि बाबू कुंवर सिंह का अंग्रेजों के खिलाफ अभियान जारी रहा।  उन्होंने दूसरा मोर्चा बीबीगंज में खोल दिया।  यहां दो अगस्त 1857 को अंग्रेजों की सेना के साथ भीषण जंग हुआ।  अंग्रेजी सेना ने  आरा दोबार कब्जे की कोशिश की तो कुंवर सिंह ने बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में अंग्रेजों के खिलाफ छापमार युद्ध शुरू कर दिया।  80 साल का यह महानायक जगदीशपुर की ओर बढा।  

अंग्रेजों ने जगदीशपुर में बाबू कुंवर सिंह की घेराबंदी की।  दोनो तरफ से भीषण जंग हुआ। कई स्वतंत्रता सेनानियों को अंग्रेजों ने फांसी दे दी। किले को खंडर कर दिया लेकिन कुंवर सिंह ने घुटने नहीं टेका।  स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के अनुसार सितंबर 1857 में कुंवर सिंह ने रीवां की तरफ प्रस्थान किया।  यहां से वह बांदा से कालपी पहुंचे, लेकिन उनके कालपी पहुंचने से पहले ही तात्या टोपे अंग्रेजों से जंग हार गए।  इसके बाद बाबू कुंवर सिंह कालपी न जा कर लखनऊ पहुंचे।

इन स्थानों पर कुंवर सिंह ने किया कब्जा

 बाबू कुंवर सिंह रामगढ़ के बहादुर सिपाहियों के साथ रीवां, बांदा,  बनारस, जमगढ़,  गाजीपुर, बलिया एवं गोरखपुर में जीत का डंका बजाते रहे। इस बीच अंग्रेजों ने  लखनऊ पर दोबारा  कब्जा करने के बाद आजमगढ़ पर भी कब्जा कर लिया। जब वीर कुंवर सिंह बिहार की ओर लौटने लगे. जब वे जगदीशपुर जाने के लिए गंगा पार कर रहे थे तभी उनकी बांह में एक अंग्रेजों की गोली आकर लगी. उन्होंने अपनी तलवार से कलाई काटकर गंगा में बहा दिया।  अंग्रेज़ी सेना को हराने बाद बुरी तरह से जख्मी 23 अप्रैल, 1858 को कुंवर सिंह जगदीशपुर पहुंचे और 26 अप्रैल, 1858 को उन्होंने अंतिम सांस लिया। 

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