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इतिहास बनने के कगार पर भाड़



भाड़ में जाए या भाड़ लीप कर हाथ काला करने के मुहावरे तो आपने सुनै ही होंगे,  लेकिन यही भाड़ इतिहास बनने के कगार पर खड़े हैं।  यह भाड़ मात्र भाड़  ही नहीं है बल्कि,  सामाजिक व्यवस्था का एक अंग है।  परंपराओं की परिपाटी है जिन्हें सहेजना जरूरी है , लेकिन आज व्यवसाई और शहरीकरण के कारण यह सामाजिक और सामूहिक व्यवस्था लुप्त होने के कगार पर है । इसके पीछे कई और कारण भी हैं।  आइए जानते हैं भाड़ और भड़ भुज का महत्व और उनके लुप्त होने के कारण।

हर गांव में होता था भाड़

प्राचीन ग्रामीण व्यवस्था में हर गांव में भाड़ और भड़भुज की व्यवस्था थी। यहां गांव के सभी वर्ग के लोग जो,चना, मक्की, बाजरा, चावल आदि भुनवाने जाते थे। इनमें ज्यादातर प्राउड महिलाएं और बच्चियां होती थी जो भुनाने जाया करती थी । भड़भुजे के पास ओखली की व्यवस्था होती थी जिसमें भुने हुए धान को औरतें कूटकर चूरमुरा तैयार करती थीं।  यह काम सामूहिक रूप से होता था यानी हर कोई एक दूसरे का हाथ बटाता था ।

मेलजोल और आपसी सांझ का प्रतीक भी

भाड़ न केवल ढूंढने और बनाने का केंद्र हुआ करता था, बल्कि यह आपसी मेलजोल और सांझ का प्रतीक भी थख। दाना भुनाने आई गांव की महिलाएं एक-दूसरे का कुशलक्षेम पूछती और सुख-दुख साझा करती थीं। कई बार तो ग्राम पंचायतों के चुनाव में प्रधान पद के प्रत्याशी भी अपना चुनाव प्रचार करते करते गांव के भाड़ पर पहुंच जाते थे जैसा कि ऊपर लगी तस्वीर में दिखाई दे रहा है।

शादी ब्याह में भाड़ और भड़भुज का महत्व

 हमारी सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि हर कोई एक दूसरे का पूरक है।   चाहे वह किसी भी धर्म का हो ।  ऐसी ही व्यवस्था भाड़  के साथ है।  शादी -ब्याह चाहे लड़की की हो या लड़के का।  भाड़  के बिना काम नहीं चलता ।  शादी में एक परंपरा होती है लावा मिलाने की जो सप्तपदी के समय निभाई जाती है।  धान के इस लावा को भुनाने के लिए भाड़  की जरूरत पड़ती है,  क्यों कि भाड़ की पूजा भी की जाती है। खैर बदलते समय के अनुसार लावा अब भुनाने के बजाय बाजारों से खरीदा जाने लगा है, लेकिन गांव में अभी भी यह परंपरा कायम है।



क्या है भाड़

गांव के लोग भाड़ और उसकी प्रकृति से भलीभांति परीचित हैं। परंतु शहरों में रहने वाले लोग शायद ही भाड़ के बारे में जानते हों। जमीन में करीब एक या दो फीट लगभग तीन मीटर लंबा गहरा गड्ढा खोदकर उस पर मिट्टी से एक सुरंग बनाई जाती है। लगभग दो या ढाई फुट  ऊंचा चौकोर निर्माण किया जाता है।  इसमें मिटटी के दो चार या छह छोटे-छोटे मटके (जिन्हें कूड़ा कहा जाता है ) एक दूसरे के समानांतर लगाए जाते हैं। 

  इन कूड़ो में रेत भरी जाती है। गुफा नुमा बनी भाड़ के सामने एक छोटा सा मुंह बनाया जाता है और इसके पीछे एक चिमनी बनाई जाती है।  ताकि धुआं  बाहर निकल सके।  भाड़ पर एक या दो कड़ाही लगाई जाती है, जिसमें लोग अनाज भून सकें। भाड़ के मुंह से उसमें पत्ते या लकड़ी झोंक कूड़े में भरे रेत को गर्म कर अनाज को भूना जाता है।

अनाज के बदले अनाज होता था शुल्क 

आज से करीब 20- 22 साल पहले तक गांवों में भड़भुज दाना भुनने के बदले शुल्क के तौर पर अनाज के बदले अनाज लिया करते थे जिसे स्थानीय भाषा में भार कहा जाता था। यह भार अनाज का पांचवा यख छठवां अंश होता था,  लेकिन बदलते समय के साथ-साथ भड़भुज अब अनाज की जगह पैसा देने लगे हैं जो कहीं प्रति किलो ₹10 तो कहीं ₹15 है।  कहीं कहीं अभी भी अनाज के बदले अनाज वाली परंपरा कायम है या दोनों  एक साथ चल रही हैं। 


 रामभवन गोड़ कहते हैं पैसा जरूरी है पर भार देने की भी परंपरा कायम है । वे कहते हैं बदलते समय के साथ थोड़ा बदलाव भी जरूरी है ।  अब भुनवाने वालों में भी कमी आई है तो भाड़ और भड़भुज में भी । भाड़ में मिले अनाज से तो घर का खर्च पूरी तरह से चलेगा नहीं सो रोजी रोटी के लिए कोई अन्य व्यवसाय अपनाना पड़ रहा है। 

 इसलिए भी बंद हो गए भाड़

 भाड़ बंद होने के पीछे एक कारण और भी है यह है बाग बगीचों का खत्म होना।  गांव बाराचवर निवासी सुधन और केदार  कहते हैं यह सही है भाड़ का काम खत्म होने को है।  यह किस्से कहानियों में ही रह जाएंगे।  आज से करीब 30 साल पहले हमारे माता-पिता खुद भाड़ भोंकते थे तब यह समय की जरूरत थी,  जरूरत भी है।  लेकिन समय बाग बगीचों ईधन आसानी से मिल जाता था।  बसंत के समय जब पत्ता झड़ता था तो पेड़ों की पत्तियां उठाकर बगीचों में गाज (पत्तों की ढेरी)  बना लिया करते थे जो पूरे साल काम आती थी,  लेकिन अब न बाग रहे और ना ही पत्तियां। ईधन की भी कमी है।  इसके अलावा इस पुश्तैनी काम में अब कुछ रहा नहीं इसलिए बहुत से लोगों ने दूसरा व्यवसाय अपना लिया है। 

भाड़ और भड़भुज का बदला स्वरूप

 ऐसा नहीं है कि भाड़ का काम खत्म हो गया है।  भाड़ हैं,  पर इन स्वरूप बदल गया है।  अब यह गांव से उठकर सड़क पर आ गए हैं, यानि चट्टी- चौराहे पर ।  ठेलों  पर छोटी-छोटी भट्ठियां रखकर चावल, चने, मक्का आदि घूम-घूम कर भून कर  बेचते हुए दिख जाएंगे। अभ्यास किसी एक वर्ग विशेष का व्यवसाय ना होकर व्यवसायिक हो गया है। अब इसे किसी भी वर्ग विशेष का व्यक्ति व्यवसाय के तौर पर अपना सकता है।  पहले फर्क यह था कि भड़भुज चना भूनने के बदले चना ही लेते थे,  लेकिन अब अनाज के बदले अनाज नहीं पैसा लेते हैं। 

गर्मी में बहुत आनंद देता है भाड़ में भुना हुआ जौ और चने का सत्तू 

आज भी गांव के बड़े बुजुर्गों से जौ और चने की सत्तू के तारीफ सुनने को मिल जाता है।   गर्मी के मौसम में गांव के भाड़ पर जौ और चने को भूनकर पीसा जाता था । जौ  और चने के सत्तू को नमक और प्याज के साथ घोलकर या गूथ कर खाने से लू लगने का खतरा कम होता है, लेकिन आज यह भी  लगभग खत्म होने के पर है।

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